20-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन 

त्याग-मूर्त्त और तपस्वी-मूर्त्त सेवाधारी ही यथार्थ टीचर

सर्वस्व त्यागी, अथक सेवाधारी, विश्व-शिक्षक शिव बाबा ने ये मधुर महावाक्य उच्चारे :-

टीचर्स अर्थात् सेवाधारी। सेवाधारी अर्थात् त्याग और तपस्वी-मूर्त्त। टीचर्स को अपने अन्दर महीन रूप से चैकिंग करनी चाहिए। मोटे रूप से नहीं बल्कि महीन रूप से। वह यही है कि सारे दिन में सर्व प्रकार के त्याग-मूर्त्त रहे अथवा कहीं त्याग-मूर्त्त के बजाय कोई भी साधन व कोई भी वस्तु को स्वीकार करने वाले बनें? जो त्याग-मूर्त्त होगा वह कभी भी कोई वस्तु स्वीकार नहीं करेगा। जहाँ स्वीकार करने का संकल्प आया तो वहाँ तपस्या भी समाप्त हो जायेगी। त्याग, तपस्या-मूर्त्त ज़रूर बनायेगा। जहाँ त्याग और तपस्या खत्म वहाँ सेवा भी खत्म। बाहर से कोई कितने भी रूप से सेवा करे, परन्तु त्याग और तपस्या नहीं तो सेवा की भी सफलता नहीं। 

कई टीचर्स सोचती है कि सर्विस में सफलता क्यों नहीं? सर्विस में वृद्धि न होना वह तो और बात है, परन्तु विधि-पूर्वक चलना यह है सर्विस की सफलता। तो वह तब होगी जब त्याग और तपस्या होगी। मैं टीचर हूँ, मैं इन्चार्ज हूँ, मैं ज्ञानी हूँ या योगी हूँ यह स्वीकार करना, इसको भी त्याग नहीं कहेंगे। दूसरा भले ही कहे, परन्तु स्वयं को स्वयं न कहे। अगर स्वयं को स्वयं कहते हैं तो इसको भी स्व-अभिमान ही कहेंगे। तो त्याग की परिभाषा साधारण नहीं। यह मोटे रूप का त्याग तो प्रजा बनने वाली आत्मायें भी करती हैं, परन्तु जो निमित्त बनते हैं उनका त्याग महीन रूप में है। कोई भी पोज़ीशन को या कोई भी वस्तु को किसी व्यक्ति द्वारा भी स्वीकार न करना - यह है त्याग। नहीं तो कहावत है कि जो सिद्धि को स्वीकार करते तो ‘वह करामत खैर खुदाई’। तो यहाँ भी कोई सिद्धि को स्वीकार किया जो ज्ञानयोग से प्राप्त हुआ मान व शान तो यह भी विधि का सिद्धि-स्वरूप प्रालब्ध ही है। तो इनमें से किसी को भी स्वीकार करना अर्थात् सिद्धि को स्वीकार करना हुआ। जो सिद्धि को स्वीकार करता है, उसकी प्रालब्ध यहाँ ही खत्म फिर उसका भविष्य नहीं बनता। तो टीचर्स की चैकिंग बड़ी महीन रूप से हो। सेवाधारी के नाते से त्याग और तपस्या निरन्तर हो। तपस्या अर्थात् एक बाप की लगन में रहना। कोई भी अल्पकाल के प्राप्त हुए भाग्य में यदि बुद्धि का झुकाव है तो वह सेवा में सफलतामूर्त्त नहीं बन सकता। सफलतामूर्त्त बनने के लिये त्याग और तपस्या चाहिए। त्याग का मतलब यह नहीं कि सम्बन्ध छोड़ यहाँ आकर बैठे। नहीं। महिमा का भी त्याग, मान का भी त्याग और प्रकृति दासी का भी त्याग - यह है त्याग। फिर देखो मेहनत कम सफलता ज्यादा निकलेगी। अभी मेहनत ज्यादा, सफलता कम क्यों? क्योंकि अभी इन दोनों बातों में अर्थात् त्याग और तपस्या की कमी है। जिसमें त्याग-तपस्या दोनों हैं वह है यथार्थ टीचर अर्थात् काम करने वाला टीचर। नहीं तो नाम-मात्र का टीचर ही कहेंगे। 

टीचर्स को कोई भी सब्जेक्ट में कमज़ोर नहीं होना चाहिए। अगर टीचर कमज़ोर है तो वह जिनके लिये निमित्त बनी है वह भी कमज़ोर होंगे। इसलिए टीचर्स को सभी सब्जेक्ट्स में परफेक्ट होना चाहिए। टीचर्स का यह काम नहीं कि वह कहे कि क्या करूँ, कैसे करूँ या कहे कि आता नहीं। यह टीचर के बोल नहीं, यह तो प्रजा के बोल हैं। ऐसे अपने को सफलतामूर्त समझती हो? चेक करो, कहीं न कहीं रूकावट है। इसलिए सफलतामूर्त्त नहीं। जहाँ त्याग-तपस्या की आकर्षण होगी वहाँ सर्विस भी आकर्षित हो पीछे आयेगी। समझा? ऐसे सफलता-मूर्त्त टीचर बनो। ऐसे टीचर के पीछे सर्विस की वृद्धि का आधार है। ऐसे को कहते है लक्की (भाग्यवान)। इसके लिए ही कहावत है - ‘धूल भी सोना हो जाता है’। धूल भी सोना हो जायेगा अर्थात् सफलतामूर्त्त बन जायेंगे। टीचर्स ऐसे सफलतामूर्त्त हैं? नम्बरवार तो होंगे। टीचर्स के नम्बर तो आगे हैं। अच्छा अगर ऐसी सफलतामूर्त्त न बनी हो तो अभी से बन जाना। 

बाप से प्रीति निभाने वाले का मुख्य लक्षण 

बाप को जीवन का साथी बनाया है? साथी के साथ सदा साथ निभाना होता है। साथ निभाना अर्थात् हर कदम उसकी मत पर चलना पड़े। तो कदम-कदम पर उसकी मत पर चलना अर्थात् साथ निभाना। ऐसे निभाने वाले हो या सिर्फ प्रीति लगाने वाली हो? कोई तो अब तक प्रीति लगाने में लगे हुए हैं। इसलिये कहते है कि योग नहीं लगता। जिसका थोड़ा समय योग लगता है फिर टूटता है ऐसे को कहेंगे प्रीति लगाने वाले। जो प्रीति निभाने वाले होते हैं वह प्रीति में खोये हुए होते हैं। उनको देह की और देह के सम्बन्धियों की सुध-बुध भूली हुई होती है तो आप भी बाप के साथ ऐसी प्रीति निभाओ तो फिर देह और देह के सम्बन्धी याद कैसे आ सकेंगे? 

प्रश्न :- बाप द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों का प्रैक्टिकल जीवन में शक्तिपन की निशानी क्या दिखाई देगी? 

उत्तर:- शक्तिपन की निशानी है -कहीं भी किसमें आसक्ति न हो। दूसरा, शक्ति-स्वरूप सदा सेवा में तत्पर रहेगा। सेवा में रहने वाले की कहीं भी आसक्ति नहीं होती। सेवा करने वाले त्याग और तपस्या-मूर्त्त होते हैं इसलिए उनकी कहीं भी आसक्ति नहीं होती - अर्थात् उनको बॉडी-कान्शस नहीं होता। तीसरे, उन्हें शक्तियाँ देने वाला बाप और उनके द्वारा मिली हुई शक्तियाँ ही याद रहती हैं। ऐसे शक्ति अवतार ही मायाजीत बनते हैं। 

इस मुरली का सार

1. सेवाधारी ही टीचर्स है और सेवाधारी त्याग-तपस्या मूर्त्त अवश्य होगा। सर्विस में सफलता न मिलने का कारण त्याग-तपस्या में कमी है। 

2. कोई भी पोज़ीशन (मैं टीचर्स हूँ, मैं इन्चार्ज हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, योगी हूँ) वाले को, कोई भी वस्तु को, किसी भी व्यक्ति द्वारा स्वीकार न करना - यह है त्याग और तपस्या अर्थात् एक बाप की याद में मग्न रहना। 

3. टीचर्स को सभी विषयों में परफेक्ट (सम्पूर्ण) होना चाहिये-अगर टीचर्स कमज़ोर है तो वह जिनके लिये निमित्त बनी हैं वह भी कमज़ोर होंगे। 

4. जो सिद्धि को स्वीकार करता है उसकी प्रालब्ध यहाँ ही खत्म हो जाती है।